सच क्या है ?




"धर्म या मजहब का असली रूप क्या है ? मनुष्य जाती के
शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उस से उत्पन्न मिथ्या
विश्वाशों का समूह ही धर्म है , यदि उस में और भी कुछ है
तो वह है पुरोहितों, सत्ता-धारियों और शोषक वर्गों के
धोखेफरेब, जिस से वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से
बाहर नहीं जाने देना चाहते" राहुल सांकृत्यायन



















Wednesday, December 29, 2010

सड़ता अनाज सड़ता लोकतंत्र

सड़ता अनाज सड़ता लोकतंत्र

विभांशु दयाल 22 dec 2010 रास्ट्रीय सहारा

इस देश में लाखों लोग भूखे पेट भटकते रहते है और इसी देश में हजारों टन अनाज खुले गोदामों में सड़ जाता है, बरबाद हो जाता है। इस बर्बाद होते अनाज में से एक लाचार अधेड़ औरत थोड़ा- सा अनाज अपनी भूखी झोली में भरने की मजबूरिया कोशिश करती है तो रखवाला जवान चौकीदार उसे घसीट कर रेलवे ट्रैक पर डाल देता है, उसकी पिटाई करता है, उसे कमरे में बंद कर देता है और मीडिया से प्रसारित इस दृश्य को पूरा देश मजे से देखता है। देश की सर्वोच्च न्याय संस्था सर्वोच्च न्यायालय विसंगति का संज्ञान लेकर आदेश देता है कि अनाज को सड़ाने की बजाए सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी मुफ्त आपूर्ति सुनिश्चित करे और देश की सरकार दो टूक जवाब थमा देती है कि गरीबों को मुफ्त में अनाज बांटने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करना संभव नहीं है। ध्यान दीजिए कि हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के दो सर्वोच्च स्तंभ न्यायपालिका की शीर्ष संस्था सर्वोच्च न्यायालय और कार्यपालिका की शीर्ष संस्था केंद्र सरकार सामान्य लोगों की दैनिक समस्याओं का समाधान किसके भरोसे है। सड़ते अनाज और गरीबों में इसके वितरण का संभव न हो पाना, सीधे-सीधे यह बताता है कि एक ओर बेशकीमती अनाज सड़ता रहेगा और दूसरी ओर गरीबों के पेट भूखे रहते रहेंगे। इस डरावनी विरोधाभासी स्थिति का हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के पास निर्णायक और अंतिम तौर पर कोई हल नहीं है। यानी हमारी वर्तमान शासकीय प्रणाली में ऐसा कोई प्रावधान करना संभव ही नहीं है कि अनाज को सड़ने न दिया जाए और सड़ने से पहले उसे गरीबों के पेट तक पहुंचा दिया जाए। इस व्यवस्था में यह अनिराकरणीय विसंगति केवल सड़ते अनाज और गरीबों के भूखे पेट के मध्य ही नहीं है, बल्कि लोगों के सामान्य जीवन के हर क्षेत्र में पैठी हुई है। देश के दस लोगों के पास जितनी संपत्ति बताई जाती है, उतनी निचले तबके के दस करोड़ लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है। करोड़ों लोगों को दिन शुरू करने के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी, वहीं लाखों लोग ऐसे है जो तय नहीं कर पाते कि आज उनका पिज्जा खाने का मन है या बर्गर खाने का, उन्हें मटन की डिश चाहिए थी या चिकिन की। करोड़ों जिन कैलोरियों के लिए तरसते है उतनी कैलोरियां कुछ लाख लोग मुंह में भर-भर कर सड़कों पर थूक देते है या कूड़ेदान में फेंक देते है। जिन्हें सबसे ज्यादा इलाज और दवा की जरूरत है, उनके पास न इलाज है न दवा, लेकिन जो पहले से ही स्वस्थ्य है उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए हर गुरु और हर विशेषज्ञ मौजूद है। जिनके पास मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं है, जो उचित शिक्षा और वातावरण पाकर चमत्कारिक ढंग से विकास कर सकते है और समाज की बेहतरी में बेहतरीन योगदान दे सकते है उनके पास कोई अवसर नहीं है। दूसरी ओर लाखों लोग ऐसे है जो भले ही दिमाग से गर्दभ और दिल से शूकर हो मगर अपनी कृष्ण संपत्ति के बल पर किसी भी अवसर को खरीद सकते है और किसी भी पद पर शान से प्रतिष्ठित हो सकते है। जिन्हें सबसे ज्यादा न्याय की जरूरत है, न्याय पाने के लिए उनकी जिंदगियां घिस जाती है मगर उन्हें न्याय नहीं मिलता। दूसरी ओर न्याय तंत्र का सहारा लेकर जिन्हें अन्याय करना होता है, उनकी सेवा के लिए देश की हर अदालत तैयार है। आखिर हमारे वर्तमान लोकतांत्रिक जीवन का कौन-सा ऐसा पहलू है जिसमें सड़ते अनाज और भूखे पेटों की विसंगति मौजूद नहीं है? ये वे विसंगतियां है जिनका समाधान न उच्चतम न्यायालय के पास है और न किसी भी केंद्र या राज्य सरकार के पास। अब जब इनमें से किसी का भी कोई हल नहीं मौजूद नहीं है तो फिर इस पर हायतौबा मचाने का अर्थ ही क्या है कि इधर लोग भूख से तड़प रहे है और उधर हजारों टन अनाज सड़ रहा है। दूसरे शब्दों में किसी भी ऐसे अपराध अभद्रता, अन्याय, अतिचार या असंगति के बारे में आलतू-फालतू आयं-बायं कहने या सुनाने का लाभ क्या है जब कहीं कुछ होना ही नहीं है। जब कुछ बदलना ही नहीं है। कम से कम उन तरीकों से तो बदलने की कल्पना ही बेमानी है जो तरीके हमारी वर्तमान व्यवस्था से ही प्रसूत और पोषित है। अगर इनसे कुछ बदल सकता है तो बदलता हुआ दिखाई देता और परेशान-हताश होकर देश का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवाद जैसे प्रतिरोधक आंदोलन की शरण में नहीं चला जाता। अगर थोड़ी सी भी गहराई से नजर डाल लें तो साफ समझ में आता है कि ये सारी विकृतियां और विसंगतियां भारत जैसी वर्तमान लोकतांत्रिक-चुनावी व्यवस्था की विचलनकारी स्थितियां नहीं बल्कि स्वाभाविक और प्राकृतिक स्थितियां है। व्यवस्था के विचलनों का हल खोजा जा सकता है और उनका उपचार किया जा सकता है, लेकिन स्वाभाविक विकृतियों का नहीं। सड़ते अनाज और भूखे पेट की विसंगति एक स्वाभाविक और अपरिहार्य विसंगति है। जिसका हल न उच्चतम न्यायालय के पास है और न केंद्र सरकार के पास। ठीक उसी तरह जैसे अन्य विकृतियों या विसंगतियों का नहीं है। हल है, लेकिन अपने समाज को चलाने की जो प्रतियोगितात्मक और प्रतिद्वंद्वात्मक पद्धतियां हमने प्रचलन में कर रखी है उनके बीच कोई हल नहीं है। इन पद्धतियों के बीच हम लगातार व्यक्ति की अंधी हवस को हवा दे रहे है जिसके चलते व्यक्ति का संवेदनशील न्यायबोध ही मर जाता है और उसकी सहज मानवीय संवेदनाएं कुंद हो जाती है और ऐसे व्यक्तियों का समाज सहजता से स्वीकार कर लेता है कि लोग भूख से मरते रह सकते है और साथ ही गोदामों में अनाज सड़ते रह सकता है। देखने की जरूरत तो यह है कि गोदामों में अनाज इसलिए सड़ रहा है कि वर्तमान चुनावी व्यवस्था की गोद में बैठा हमारा यह लोकतंत्र ही सड़ रहा है। विभांशु दिव्याल समाज

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