सच क्या है ?




"धर्म या मजहब का असली रूप क्या है ? मनुष्य जाती के
शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उस से उत्पन्न मिथ्या
विश्वाशों का समूह ही धर्म है , यदि उस में और भी कुछ है
तो वह है पुरोहितों, सत्ता-धारियों और शोषक वर्गों के
धोखेफरेब, जिस से वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से
बाहर नहीं जाने देना चाहते" राहुल सांकृत्यायन



















जाती तोड़ो भारत जोड़ो

जाति तोड़ो : यह दलित समाज में बेहद लोकप्रिय पुस्तिका है जो सन्‌ 1964 में अखिल भारतीय जाति तोड़ो महासम्मेलन में दिये गये भाषण का संकलन है। इसमें श्री स्वामी देवानंद सरस्वती, महराज सिंह भारती, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, संत राम, बी.ए., सुश्री हबीबा जानू तहसीन, राजपुताना के व्याख्यान संग्रहीत हैं। जिज्ञासु जी ने पुस्तिका के प्रकाशन की परम्परा को आगे बढ़ाया, उनका मानना था कि वह समाज मरा हुआ है जिसका अपना साहित्य नहीं है, साहित्य ही समाज को जिन्दा रखता है, इस नाते उन्होंने अनुवाद करके भाषणों का संकलन प्रकाशित कर लोगों तक पहुंचाया, इस पुस्तिका का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। जातिवाद संस्कारों के आधार पर चल रहा है, यह किसी तर्क पर टिका नहीं है, बिना इसे तोड़े विकास सम्भव नहीं है। उनकी कई पुस्तिकाएं अभी भी मूल रूप में छप रही हैं। यह पुस्तिका समाज सेवा प्रेस सआदतगंज, लखनऊ द्वारा सन्‌ 1965 में प्रकाशित हुई। इनकी अन्य पुस्तकें हैंᄉ रावण और उसकी लंका, भारत के आदि निवासियों की सभ्यता, संत रैदास का जीवन दर्शन।


श्री सभापति महोदय, बहनो और भाइयो!
यह कहना कदापि ठीक नहीं है कि आज जो लोग ÷जाति तोड़ो' का नारा लगाते हैं, वे आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित विकृत मस्तिष्क हैं, वे हजारों वषोर्ं से चली आयी भारत की पवित्रा सनातन संस्कृति को भंग करना चाहते हैं। प्राचीन संस्कृत और पाली साहित्य जो कि विशुद्ध भारतीय है, हमें बताता है कि जातिवाद का विरोध केवल आज के युग की बात नहीं है, यह संघर्ष बहुत पुराना है।
वर्णों और जातियों की शास्त्राीय उत्पत्ति
जातिवाद की उत्पत्ति कब और कैसे हुुई, यह प्रश्न यद्यपि विवादी है फिर भी खोजी और विचारक विद्वानों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है। ऋग्वेद भाष्यकार सर रमेशचंद्र दत्त, महापंडित राहुल सांकृत्यायन एवं कई विदेशी मनीषियों ने, जिन्होंने भारतीय साहित्य का मंथन किया है, इस पर जो प्रकाश डाला है, वह काफी मनोरंजक, ज्ञानप्रद, और बुद्धिग्राही है। जातिवाद की बुनियाद वेदों में मिलती है। बेदों का प्रसिद्ध ÷पुरुष सूक्त' जातिवाद की जड़ है। यह सूक्त चारों वेदों में पाया जाता है। यजुर्वेद में 22, ऋग्वेद में 16, सामवेद में 7 और अथर्ववेद में 16 मंत्रा थोड़े उलटफेर के साथ हैं। विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त उस समय वेदों में जोड़ा गया जब विजेता आर्य लोग समाज को चार रंगों में विभाजित कर समाज व्यवस्था बना रहे थे। इसे महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ÷जाली' मंत्रा की संज्ञा दी है। मंत्रा यह हैᄉ
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहुः राजन्यः कृतः।
उरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत्‌॥
अर्थात्‌ उस पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहों से क्षत्रिाय, उरु या जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुए।
मंत्रा में ÷अजायत्‌' क्रिया है, जिसका अर्थ ÷पैदा होना' होता है। आजकल कुछ लोग इस अर्थ में गड़बड़ी करने लगे हैं। पर उन्हें ध्यान नहीं रहता कि इसके आगे ही बारहवें मंत्रा में कहा गया है कि उस पुरुष के मन से चंद्रमा, आंखों से सूर्य, कानों से वायु तथा प्राण और मुंह से अग्नि उत्पन्न हुई। यथाᄉ
चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूयोर्ं अजायत्‌ ।
श्रोत्रााद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत्‌॥
सारे सूक्त में सृष्टि की उत्पत्ति का ही वर्णन है। और स्मृतियों में, जिसका काम वेदों के ज्ञान को व्यावहारिक रूप देना है, इसकी पुष्टि की गयी है। मनुस्मृति में साफ कहा गया हैᄉ
लोकानां तु विवृद्ध्यथर्यं मुखबाहूरूपादतः ।
ब्राह्मणं क्षत्रिायं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्‌॥
अर्थात्‌ सृष्टि की अभिवृद्धि के लिए (ब्रह्मा ने स्वयं) अपने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिाय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया (निरवर्तयत)। इस तरह पहले तो चार वर्ण पैदा हुए, फिर इन चारों वणोर्ं के परस्पर के व्यभिचार से अनुलोम प्रतिलोम क्रम से नाना जातियां बन गयीं और जीविका निर्वाह के लिए उन्हें यथायोग्य पेशे भी बांट दिये गये।
चारों वर्णों के व्यभिचार से जो संतान उत्पन्न हुई, उसमें उ+ंच नीच की भावना व्यभिचार भेद के अनुसार है। उ+ंचे वणोर्ं के पुरुष और नीचे वर्ण की स्त्राी में ÷अनुलोम वर्णसंकर' होता है और नीचे वर्ण के पुरुष से उ+ंचे वर्ण की स्त्राी में ÷प्रतिलोम वर्णसंकर' तथा वर्णसंकरों के परस्पर व्यभिचार से घोर संकर उत्पन्न होता है। वर्णसंकरों का दर्जा शूद्र के बराबर तथा शूद्र से ज्यादा अति शूद्र और अस्पृश्य महाशूद्र होता है। यथाᄉ
शूद्राधिकास्तुल्या व विलोमा अनुलोमिनौ।
शास्त्राों के अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिाय वैश्य तीनों वर्ण ÷द्विजाति' हैं। इनके सिवा बाकी कृषक, शिल्पकार और सेवा तथा श्रम करने वाले लोग सब ÷एकजाति' शूद्र हैं। पाचवां कोई नहीं। यथाᄉ
ब्राह्मणः क्षत्रिायो वैश्यस्त्रायो वर्णः द्विजातयः।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पंचमः॥
और व्यास जी तो साफ कहते हैंᄉ
ब्राह्मण क्षत्रिाय विशस्त्रायो वर्णः द्विजातयः।
श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त धर्म योग्यास्तु नेतरे॥
अर्थात्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिाय और वैश्यᄉ ये तीन वर्ण द्विजाति हैं। वेद, शास्त्रा और पुराणों में कहे हुए धर्म के ये ही तीनों अधिकारी हैं। इनके सिवा अन्य कोई अधिकारी नहीं।
शास्त्राों की व्यवस्था के अनुसार पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना, दान लेना और देना ब्राह्मणों के कर्म हैं। प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना और पढ़ना, क्षत्रिायों के कर्म हैं। पशुओं की रक्षा, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और खेती कराना वैश्यों के कर्म हैं। शूद्रों को प्रभु ने एक ही कर्म का आदेश किया है कि वे लोग तीनों वर्णों की असूया रहित भाव से अर्थात्‌ बिना चूं चरा किये सेवा करते रहें। यथाᄉ
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्मसमादिशत्‌।
एतेषामेव वर्णानां शुश्र्‌षामनसूयया॥
वेद शास्त्रा पुराण के अनुसार चारों वणोर्ं और नाना जातियों की उत्पत्ति एवं उनके कमोर्ं की यही व्यवस्था है। किन्तु यह जन्मवादी व्यवस्था, जिसमें भोग और श्रम का बटवारा जन्ममूलक है और जिसमें परिश्रम करने वाले श्रमिकों को नीच तथा आराम से काम करने वालों को उ+ंचा कहा गया है, बहुजन समाज को कभी मान्य नहीं हुई। यह जन्मवादी व्यवस्था समाज पर सदा बलपूर्वक, तलवार की जोर से लादी गयी और बहुजन समाज हमेशा इसका विरोध करता रहा।
ब्राह्मण सर्वोपरि कैसे हुए ?
वैदिक आयोर्ं में शायद पहले जातिभेद नहीं था। सब आपस में विवाह और सहभोज करते थे। एक साथ चलते, एकसा बोलते और जो कुछ अर्जित करते, उसे आपस में ÷यथाभाग' बांट लिया करते थे। लेकिन प्रभुताई, आराम और भोग ये ऐसी चीजें हैं कि इनके लिए आपस में झगड़ा हो ही जाता है। अतएव ब्राह्मणों और क्षत्रिायों में भी इसी प्रभुत्व और श्रेष्ठता के लिए झगड़ा हो गया। ब्राह्मण चाहते थे, हम सर्वोपरि रहें, क्षत्रिाय चाहते थे हमारी प्रभुताई और हमारा शासन चले। इस संघर्ष में ब्राह्मणों की विजय हुई क्योंकि ब्राह्मणों के हाथ में शास्त्रा थे और क्षत्रिायों के हाथ में शस्त्रा। शास्त्रा का अर्थ है दिमाग और कलम की ताकत तथा शस्त्रा का अर्थ है तीर और तलवार की ताकत। क्षत्रिाय वीर थे, बलवान थे, हष्टपुष्ट थे, परंतु मस्तिष्कहीन थे। उनके मस्तिष्क पर ब्राह्मण सवार हो गये और जिस बल चाहा उस बल उन्हें, मदारी जैसे बंदर को नचाता है, नचाने लगे।
एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में तलवार पकड़े हुए लाहौर में लार्ड लारेंस का तेजस्वी पुतला खड़ा किया था। उस पुतले के द्वारा अंगे्रजों का भारतीयों से कहना थाᄉ ''ऐ भारत के रहने वालो! तुम हमारी कलम की ताकत से हमारे आज्ञानुवर्ती रहोगे या तलवार की ताकत से ? याद रखो, यदि हमारे मस्तिष्क और लेखनी के द्वारा बनाये कानूनों को तुम नहीं मानोगे, तो देखो हमारे दूसरे हाथ में तलवार है। इस तलवार की ताकत से हम तुम्हें अपने कानूनों को सिर झुका कर मानने के लिए मजबूर कर देंगे।'' हमारे देश के राजनीतिक नेताओं ने जब इस तत्व को समझा, तो लार्ड लारेंस की उस मूर्ति को ÷आपमानजनक' कह कर उसे हटाने के लिए सत्याप्रह किया। क्योंकि जिस लोकतांत्रिाक सभ्यता का झंडा लेकर अंगे्रज यहां शासन करते थे, उसका सिद्धांत हैᄉ ÷जनता के हित के लिए, जनता द्वारा बनाये हुए कानूनों के अनुसार, जनता के द्वारा ही प्रशासन होना।'
आराम और भोग के लिए लालायित ब्राह्मणों ने समाज पर अपने प्रभुत्व के स्थापन का उपाय किया। उसमें ऋषि थे, जो वेद मंत्राों के द्रष्टा माने जाते थे। वेदों को ईश्वरीय ज्ञान कहा जाता था। ईश्वरीय ज्ञान के द्रष्टा प्रायः ब्राह्मण ही थे, और वेदों का समाज पर आतंक छाया था। सारा धर्म, कर्म और ज्ञान वेदों में निहित था। ब्राह्मणों ने वेदों को अपनी स्वार्थ सिद्धि का अभेद्य दुर्ग बनाया, और अनंत ज्ञानमय अनंत वेदों (अनंतों वै वेदाः) के किले में बैठ कर नित नये सूक्त रूपी गोलों और आयटम बमों का समाज पर प्रहार करने लगे। क्षत्रिायों और वैश्यों सहित सारा समाज धराशायी हो गया!
ब्राह्मणों ने घोषणा कर दीᄉ ÷धर्म जिज्ञासुमानानां प्रमाणम्‌ परमं श्रृंतिः।' अर्थात्‌ धर्म के जो जिज्ञासु हैं, धर्म की जिनकी प्यास है, उनके लिए परम प्रमाण वेद हैं। और कहाᄉ ÷नास्तिको वेद निन्दकः' अर्थात्‌ जो वेदों की निन्दा करता है, वह नास्तिक है। ईश्वर की निन्दा करते रहो, ईश्वर को मानो या न मानो, तुम्हारी मर्जी। मगर खबरदार ! वेदों की निन्दा मत करना। वेदों के निन्दक और वेद विदूषक की भारी दुर्गति होती है। वह ÷नास्तिक' बना कर समाज में घृणा का पात्रा बना दिया जायगा या उसे समाज बहिष्कृत कर दिया जायगा।
यह स्वाभाविक है कि जो दबाया जाता है, वह अपने बचने का भी उपाय करता है। अतः जनता ने अपना रक्षक देवता बना कर कहाᄉ हम ऐसे देवता की पूजा करते हैं, जिसके आगे तुम्हारी कुछ न चलेगी। तो ब्राह्मणों ने कहाᄉ चुप रहो। बको मत। होश की दवा करो। याद रखोᄉ
देवाधीनं जगत्‌ सर्व, मंत्रााधीनं च देवताः।
ते मंत्रााः ब्राह्णाधीनं, तस्मात्‌ ब्राह्मण देवता॥
अर्थात्‌ सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मंत्राों के अधीन हैं, वे मंत्रा ब्राह्मणों के अधीन हैं। इसलिए ब्राह्मण ही देवता (भूदेव) हैं। ब्राह्मणों को पूजो, ब्राह्मणों का आदेश मानो।
इसी भावना के मातहत समाज पर अपने प्रभ्ुात्व को, ईश्वरादेश बनाने की कामना से, नारायण ऋषि के हृदय में ÷पुरुष सूक्त' का प्रकाश हुआ। इसमें ईश्वर की विराट पुरुष (हाथ, पैर मुंह, आंख, कान, नाक आदि अंगों वाला पुरुष) कल्पना करके उसकी स्तुति की गयी है। पहले मंत्रा में उस पुरुष के रूप का वर्णन हुआ है। कहा गया हैᄉ ''उस पुरुष के हजार सिर, हजार आंखें और हजार पैर हैं, वह सब ओर से भूमि को छूता हुआ ÷दस अंगुल का' होकर ठहरा हुआ है।'' यथाᄉ
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपाद्।
स भूमि सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठाद्दशात्त्लम्‌॥
इस तरह उसके सावयव स्वरूप का वर्णन करते हुए अगले मंत्रा में बताया गया कि उस अद्भुत पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ और वही इस पर अधिष्ठित भी है तथा उत्पन्न जगत से, अलग भी। पहले भूमि बनाता है, फिर शरीरों को।
इस तरह स्तुति करते हुए अंत में कहा गया कि ब्राह्मण उसका मुंह है, क्षत्रिाय बाहें, वैश्य उरु और जांघ हैं तथा शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए। फिर बताया गया कि चंद्रमा उसके मन से, सूर्य उसकी आंखों से, वायु और प्राण उसके कानों से तथा अग्नि उसके मुंह से उत्पन्न हुई। (मुखादग्निरजायत्‌)
इस सूक्त के प्रकाश में आने से ब्राह्मण परमेश्वर की ओर से सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हो गये। क्षत्रिाय बाहु होने से ब्राह्मणवाद के बलपूर्वक रक्षक सिपाही बन कर राज्य करने लगे। और सारी मजेदारी उरु या जांघों में होती है, जिससे कि वैश्य उत्पन्न हुए। इसीलिए सारी अर्थव्यवस्था और व्यापार वैश्यों की मुट्ठी में आया। वैश्य का अर्थ है धन या पूंजी। बचे बहुसंख्यक शूद्र, वे सब इस द्विजाति समाज के भोग, आराम और सुख के लिए सेवक एवं दास या गुलाम बनाये गये।
समाजवादी दृष्टि के लिए इतना वर्णन काफी है। परंतु हमारी आदत है कि नतीजा दूसरे बतावें । अच्छा सुनिए।
खोजी विद्वानों का मत
सर रमेशचंद्र दत्त के मतानुसार ब्राह्मण क्षत्रिाय वैश्य बाहर से आये आयोर्ं की संतान हैं, और जिन्हें आर्य शास्त्राों में शूद्र बताया गया है, वे सब भारत के मूल निवासी हैं। जिन मूल निवासियों ने विजेता आयोर्ं से युद्ध किया और आर्य प्रभुत्व जमने देने में बाधा पहुंचायी, वे सब दैत्य, असुर और राक्षस कहे गये। बाद में कुछ शक्तिशाली और मालदार मूल निवासियों को भी, जिन्होंने सिर झुका दिया, आर्य ब्राह्मणों ने अपने द्विजातीय संगठन में ले लिया।
इसी मत की पुष्टि विदेशी विद्वानों ने भी की है। श्री स्टैनले राइस एवं अमरीकी प्रेसिडेण्ट कैनेडी ने भी इसका सविस्तार वर्णन किया है और महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो अपने ÷ऋग्वेदिक आर्य' ग्रंथ में मूल वेद मंत्राों के द्वारा इसकी तस्वीर खींची है।
यह बात तो प्रायः सभी इतिहास ग्रंथों में लिखी हुई, प्रामाणिक तथा सर्वमान्य है कि भारत में आर्य लोग बाहर से आये। तब बाहर से आकर किसी देश पर शासन करने वाले के लिए यह स्वाभाविक होता है कि वह वहां की जनता का दमन करे और उसे दबोच कर अपने अनुशासन में रखे।

समाजवादी दृष्टि से इस व्यवस्था का स्वरूप
समाजवादी दृष्टि से इस व्यवस्था के सम्बंध में कहा जा सकता है कि यह तो सामंतवाद और पूंजीवाद के साथ ब्राह्मणवाद का गठबंधन हुआ। कहा भी है कि क्षात्रा शक्ति के बिना ब्राह्मण शक्ति मृतक हो जाती है। तात्पर्य यह कि ब्राह्मणवाद सदा तीर और तलवार के बल पर चलता है। यदि पीछे राजशक्ति न हो, तो नहीं चल पाता। इस व्यवस्था में चूंकि वैश्यों अर्थात्‌ पूंजीपतियों का, जिन्हें व्यापार करने और ब्याज लेने की छूट है, धन ब्राह्मणों और क्षत्रिायों की आवश्यकतानुसार खर्च होता है, इसलिए वे भी द्विजाति संगठन में रखे गये हैं। इस त्रिागुट से बाकी बचे ÷शूद्र' नामधारी कृषक, शिल्पकार, सेवक और मजदूर आदि श्रमजीवी, उन्हें अलग अलग पेशे देकर ÷जाति' नाम की नाना छोटी छोटी कोठरियों में कठोरता से कैद करके सदा के लिए भक्त, सेवक, दास व गुलाम बना लिया गया है।
इस तरकीब से ब्राह्मण वर्ग समाज का गुरु, पुरोहित, शास्ता, व्यवस्थापक, राजमंत्राी और न्यायाधीश बन गया; क्षत्रिाय वर्ग राजा, राज्यपाल, प्रशासक, योद्धा, सिपाही और रक्षक बना दिया गया और वैश्य वर्ग को व्यापार व महाजनी मिल गयी और वह पूंजीपति बन बैठा तथा शेष बहुसंख्यक जनता को वर्णसंकर, शूद्र, अछूत आदि कह कर समाज के लिए आवश्यक नाना कर्मों में नियुक्त करके नाना प्रकार के प्रपंचों का जाल रच कर उनका मनमाना शोषण, दोहन, दलन और उत्पीड़न किया गया। इस सारी समाज व्यवस्था का नाम है ÷हिन्दू धर्म' जो द्विजातियों को प्राणों से अधिक प्रिय है।
इस तरह जब यह हिन्दू समाज व्यवस्था निर्विरोध भाव से चलने लगती है, तो निश्चित भाव से ब्राह्मणों का काम केवल काव्यशास्त्रा का आनंद विनोद रह जाता है। यथाᄉ
काव्यशास्त्रा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्‌।
इतरेषां तु मूर्खानां निद्रया कलहेन वा॥
अर्थात्‌ बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्राों के विनोद में व्यतीत होता है, और इतर मूर्ख (श्रमजीवी जब श्रम करते हुए थक जाते हैं, तो) सोते रहते है, और जब जागते हैं तो आपस में (रोटी के टुकड़ों के लिए कुत्तों की तरह) लड़ने लगते हैं।
और काव्यशास्त्रा का विनोद करने वाले गुरु लोग सवेरे शाम अपनी विजय का शंख बजाया करते हैं, तथा जो देवता और अवतार ब्राह्मणवाद की स्थापना में सहायता एवं ब्राह्मणी क्रियाकलाप के बाधक शत्राुओं का संहार करते हैं, उनके बड़े बड़े स्मारक मंदिर सामंतों और पूंजीपतियों द्वारा बनवा कर उनमें उनकी सुंदर कलापूर्ण मूर्तियां स्थापित कर नित्य उनकी आरती पूजा करते एवं उनकी विजय का नगाड़ा और घंटा बजाया करते हैं, तथा जिन बहुसंख्यक लोगों को वे अपने भोग सुख उपार्जन के लिए अपना सेवक और दास बना लेते हैं, उन्हें इन देवताओं या अवतारों की भक्ति करने का उपदेश दिया करते हैं।
यह है, भारतीय मौलिक समाजवाद की तस्वीर। मार्क्सवादियों से प्रार्थना है कि पश्चिमी देशों की मार्क्सवादी विचारधारा से जरा उ+पर उठ कर स्वदेशी समाज की गहराई में घुस कर भारतीय मौलिक समाजवाद की विचारधारा की दिशा में भी सोचें विचारें।
महापति और महान्‌ विचारक कार्ल मार्क्स का समाजवाद या साम्यवाद् केवल अर्थ और पूंजी पर आधारित है, जिसकी पुष्टि महात्मा डारविन के विकासवादी वैज्ञानिक शोध के इतिहास से होती है। किन्तु भारतीय जातिवादी समाज की रचना का आधार केवल पूंजी ही नहीं, ब्राह्मणों का बुद्धि कौशल है, जिसने धर्म, दर्शन, कर्मकांड, काव्य, कथा और ज्योतिष का आधार लेकर वर्ण भेद और जाति भेद से समन्वित समाज की रचना की है। इस रहस्य का उद्घाटन करने के लिए धरती के स्तरों का अध्ययन करने तथा जलचर, थलचर, नभचर जीवों की पड़ताल करने की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी समाजवादी दृष्टि से भारतीय साहित्य, भारतीय धर्म और भारतीय जातियों की सामाजिक दशा का तुलनात्मक अध्ययन करने की है।
सज्जनो! मैंने आपके सामने हिन्दू समाज और जातिवाद की रचना के सम्बंध में जो थोड़े से विचार व्यक्त किये हैं, यदि आपने इन्हें ध्यान से सुना है, तो आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि भारत में जातिवाद की जड़ ब्राह्मणवाद है। चूंकि ब्राह्मण जन्मना समाज का पूज्य रहना चाहता है, इसलिए वह औरों को भी जन्मना जाति की कोठरियों में कैद रखता है। जातिवाद और ब्राह्मणवाद का सम्बंध है। अतः यदि ब्राह्मणवाद को किसी तरह खत्म किया जा सके, तो जातिवाद अपने आप खत्म होकर मानवतावाद आ सकता है।
जातिवाद का प्रथम विरोधी चार्वाक
जातिवाद विरोधी संघर्ष के प्रथमाचार्य संस्कृत साहित्य में हमें महर्षि अंगिरा के पुत्रा एवं देवगुरु वृहस्पति के प्रधान शिष्य, धुरंधर दार्शनिक विद्वान्‌ चार्वाक मिलते हैं। इन्होंने ब्राह्मणवाद के उस मूल पर कुठाराघात किया जिस पर वह टिका हुआ और पनप रहा था। हम पहले बता आये हैं कि ब्राह्मणवाद का अभेद्य दुर्ग वेद और यज्ञादि वैदिक कर्मकांड हैं। महापंडित चार्वाक ने पहले इसी की जड़ को खोखला किया और अपना चार्वाक दर्शन रच कर इसका विप्लवकारी विरोध किया। चार्वाक दर्शन को पढ़ने वाला वैदिक कर्मकांड का सम्मुख विरोधी हो जाता था। यह दर्शन नष्ट कर दिया गया। इसका उल्लेख इसका खंडन करने वाले ग्रंथों में पूर्वपक्ष के रूप में मिलता है। सुना है, बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी एवं बड़ोदा की गायकवाड़ सिरीज में चार्वाक दर्शन प्रकाशित हो गया है। हमें मूल ग्रंथ पढ़ने का अब तक सौभाग्य नहीं हुआ। उसका छितरा हुआ खंडनात्मक वर्णन, जो संस्कृत ग्रंथों में मिलता है, वही हमने पढ़ा है और वह सार रूप में इस प्रकार हैᄉ ब्राह्मणों ने जनता को जिस स्वर्ग और परलोक का प्रलोभन दिया है, वह सब मिथ्या है। इस अनंत जगत्‌ का रचयिता कोई ईश्वर या कोई पुरुष नहीं है। यह स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है और स्वभाव से ही इसका विनाश व रूपांतर होता है। प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है (प्रत्यक्षमेकं चार्वाकः), अनुमान और शब्द या वेद आदि कोई प्रमाण नहीं हैं। वेद तो भंड, धूर्त और निशाचरों की रचना है (त्रायो वेदस्य कर्तारो भंड, धूर्त निशाचरः)। अश्वमेघादि यज्ञों में यजमान की पत्नी के लिए अश्यव सम्भोग की विधि अथवा ईश्वर के सहस्त्रा मुख, सहस्त्रा आंखें, सहस्त्रा पैर जैसे वर्णन नितांत ÷भंड़ैती' है। स्वर्ग का प्रलोभन अथवा पुत्राकामो यजेतᄉ धनकामो यजेत अर्थात्‌ पुत्रा की कामना है तो यज्ञ करो, धन की कामना है तो यज्ञ करो, इत्यादि प्रलोभन ÷धूर्तता' है। बलि पशु का मांस भक्षण और सोमसुरा पान एवं रात्रिा में यज्ञों का कोलाहल सब ÷निशाचरता' है। प्रवंचक ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए परलोक और स्वर्ग नर्क आदि की कल्पना करके जन समाज को भयभीत और अंधा बना रखा है। यज्ञ और श्राद्ध ब्राह्मणों का व्यवसाय और उपजीविका मात्रा है। यज्ञ में बलि किया जीव यदि स्वर्ग जाता है, तो याज्ञिक लोग अपने माता पिता की बलि देकर उन्हें स्वर्ग क्यों नहीं भेज देते? स्वर्ग प्राप्ति कामना से उनका श्राद्धादि क्यों करते हैं? धरती पर ब्रह्मभोज करने से यदि स्वर्गलोक में पितरों की तृप्ति हो जाती है, तो फिर आंगन में ब्राह्मण को भोजन कराने से तीसरी मंजिल पर बैठे हुए भूखे पितामह को तृप्ति क्यों नहीं हो जाती? वस्तुतः ब्राह्मणों का स्वर्ग और परलोक निरा ढोंग है। यह संसार ही सार है। सांसारिक सुख की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना मनुष्य मात्रा का कर्तव्य है। मानवीय सदाचार का पालन और ज्ञान की अभिवृद्धि ही कल्याणकर है। जब तक जियो, सुख पूर्वक जियो।
यावज्जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌ᄉ चार्वाक के इस अंतिमोक्त वाक्य का मजाक उड़ाते हुए हमने कई ब्राह्मण उपदेशकों को सभाओं में ÷ईट डिं्रक एंड बी मेरी' अर्थात्‌ ÷खाओ पियो और खुश होओ' की मिसाल देते हुए सुना है। लेकिन यह भी उनकी ज्यादती है। चार्वाक के वचन में यावज्जीवं सुखं जीवेत्‌ ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्‌ है, जिसका अर्थ ÷शराब कवाब और जिनाकारी' कदापि नहीं है जैसा कि ईट डिं्रक और बी मेरी का अर्थ होता है। महापंडित चार्वाक घी खाने और बलिष्ठ होकर सुख से रहने की सलाह देते हैं, मदिरा मांस मैथुन की पे्ररणा नहीं करते।
जातिवाद विरोधी आचार्य अश्वघोष
महापंडित एवं दार्शनिक आचार्य अश्वघोष दो हजार वर्ष पूर्व (ई.पू. 50 से ई.50 तक) हुए। उस समय बौद्ध धर्म का पतन और ब्राह्मणी प्रभुत्व का तीव्र गति से उत्थान हो रहा था। आचार्य ने समझ लिया था कि समाज पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ही ब्राह्मण चार वर्ण और नाना जातियां बना रहे हैं। अतएव उन्होंने संस्कृत में एक ÷बज्रसूची उपनिषद' लिखा। इस सम्पूर्ण उपनिषद में उन्होंने केवल एक प्रश्न का विवेचन किया है। वह प्रश्न हैᄉ को वा ब्राह्मणश्चेति ? (ब्राह्मण कौन है?)
आचार्य प्रश्न करते हैं, यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ है, तो बताओ तुम किस चीज को ब्राह्मण कहते हो , क्या ÷आत्मा' ब्राह्मण है, या शरीर ब्राह्मण है? ब्राह्मण जन्म से होता है या ज्ञान से? आचरण से ब्राह्मण होता है या वेदों में पारंगत होने से? या वृत्ति और पौरोहित्य से ब्राह्मण होता है?
आचार्य तर्क करते हैं कि वेदों में आत्मा को ब्राह्मण नहीं कहा गया। आत्मा न ब्राह्मण है, न शूद्र। आत्मा न स्त्राी है, न पुरुष। आत्मा न हाथी है और न चींटी। शरीर न रहने पर आत्मा विभिन्न शरीरों में जन्म लेती है। अतः आत्मा ब्राह्मण नहीं है। तुम्हारे शास्त्राों के अनुसार आत्मा नित्य, शुद्ध और मुक्त स्वभाव है।
यदि कहो कि शरीर ब्राह्मण है, तो शरीर गंदा मल, मूत्रा, नाक, खखार, रक्त, पीप, मांस, मज्जा, वृक आदि 32 मलों का आकार है। तो ऐसा अपवित्रा शरीर ÷ब्राह्मण' कैसे हो सकता है? यदि इन मलों से संयुक्त शरीर को ब्राह्मण कहते हो, तो क्षत्रिाय, वैश्य और शूद्र एवं यवन, कम्बोज, यज्ञ, किरात आदि सभी का शरीर इन मलों के आकार होने से समान हैं। फिर तुम्हारे ÷ब्राह्मण' शरीर से विशेषता क्या रही? यदि कहो ब्राह्मण के घर जन्म लेने से शरीर ब्राह्मण है, तो फिर मृत्यु हो जाने पर जो उस शरीर का दाह करता या कराता है, वे दोनों ब्रह्महत्या के पाप से पातकी होते हैं। पर ऐसा तुम नहीं मानते। इससे सिद्ध हुआ कि न आत्मा ब्राह्मण है और न शरीर।
फिर यदि कहो कि जन्म लेना ब्राह्मण है, तो यह भी ठीक नहीं ठहरता। बहुत से ऋषि ऐसे हैं जो न ब्राह्मण के घर में जन्मे हैं, न ब्राह्मणी माता के उदर से। तुम्हारे शास्त्राों में लिखा है कि अचल मुनि का जन्म हथिनी के पेट से, केश पिंगल का उल्लू के पेट से, अगस्त मुनि का अगस्त के फूल से, कौशिक का घास से, कपिल का कपिला से, गौतम का गुल्म से, द्रोणाचार्य का घड़े से, तैत्तिरीय का तीतर के पेट से, श्रृंग ऋषि का हरिणी के पेट से, व्यास का घीवरी के पेट से, विश्वामित्रा का चांडालिनी के पेट से, वशिष्ठ का उर्वशी वेश्या के पेट से हुआ। तो भी ये सब श्रेष्ठ ब्राह्मण ऋषि माने गये।
यदि कहो कि ब्राह्मण के बीज से ब्राह्मण होता है, तो ब्राह्मण चारों वणोर्ं की स्त्रिायों से भोग करते हैं एवं ब्राह्मणियां भी सभी पुरुषों से रति करती देखी जाती हैं। ऐसी दशा में बीज की शुद्धि की बात भी ठीक नहीं ठहरती।
यदि कहो कि ज्ञान से ब्राह्मण होता है, तो अनेक शूद्र ज्ञान निधान और लोकवंद्य हुए हैं। मातंग ऋषि चांडाल के घर उत्पन्न होकर महाज्ञानी हुए, मस्करी पुत्रा गोशाल ज्ञान समुद्र थे। इत्यादि। किन्तु कोई भी ब्राह्मण नहीं माने गये। अतः ज्ञान से ब्राह्मण होता है, यह बात भी मिथ्या ठहरती है।
यदि कहो कि आचार से ब्राह्मण होता है, तो अगणित शूद्र बड़े आचारवान्‌, सत्यवादी, जितेन्द्रिय और विशुद्ध शाकाहारी और पवित्रा परायण हुए और हैं, अनेक वैश्य और चांडाल भी पवित्रा आचरण वाले हुए हैं, परंतु कोई भी ब्राह्मण नहीं हो सके। इसलिए यह बात भी ठीक नहीं है कि आचार से ब्राह्मण होता है।
यदि कहो कि वेदों में पारंगत होने से ब्राह्मण होता है, तो रावण चारों वेदों का पारंगत था, उसके साथी भी बड़े बड़े वेदज्ञ थे, परंतु सबको राक्षस ही कहा जाता है, ब्राह्मण नहीं कहा जाता। इसलिए यह बात भी मिथ्या है कि वेदों का पारंगत होने से कोई ब्राह्मण होता है।
यदि कहो कि ब्राह्मण की वृत्ति या पौरोहित्य करने से ब्राह्मण होता है, तो यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि बहुत से क्षत्रिाय, वैश्य और शूद्र यजन याजन, पठन पाठन और दान प्रतिग्रह करते तथा पुरोहिताई आदि करते दिखाई देते हैं तथा ज्योतिषी होकर ग्रहों की शांति कराते हैं, परंतु कोई भी ब्राह्मण नहीं माने जाते।
अतः जन्मवाद और शरीरवाद की बात मिथ्या है। ब्राह्मण केवल गुणों और कर्मों से ही हो सकता है। किसी भी व्यक्ति में, चाहे वह किसी देश, किसी भी कुल या किसी भी जाति में जन्मा हो, यदि उसमें इस प्रकार के गुण और कर्म पाये जाते हों, तो वह ब्राह्मण कहा और माना जा सकता है। यथाᄉ
निर्ममो निरहारो निःसत्ते निष्प्रतिग्रहः।
राग द्वेष विनिर्मुक्तिः देवा ब्राह्मणं विदुः॥
सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेन्द्रिय निग्रहः ।
सर्वभूते दया ब्रह्मा एतद् ब्राह्मण लक्षणाम्‌॥
अर्थᄉ जो ममता रहित है, जो अहंकारी नहीं है, जो अपने साथ कुछ नहीं रखता, जो राग और द्वेष से विमुक्त है, उसे ही देवों या पूर्व पुरुषों ने ÷ब्राह्मण' माना है। सत्य ब्राह्मणत्व है, तप ब्राह्मणत्व है, इंद्रियों का निग्रह ब्राह्मणत्व है तथा समस्त प्राणियों पर दया ब्राह्मणत्व है। यही ब्राह्मण के लक्षण हो सकते हैं।
जन्मना जातिवाद का यह कैसा तर्कपूर्ण खंडन है!
हमें इस पचड़े में पड़ने की जरूरत नहीं कि बज्रसूची उपनिषद बाद का है, जबकि हिन्दू शास्त्राों के प्रमाणों पर आधारित है तथा यही प्रसंग हमें भविष्य पुराण में भी मिलता है। उसमें भी जन्मना ब्राह्मणवाद का मजाक उड़ाया गया है।
जातिवाद पर भगवान बुद्ध के विचार
आम तौर से लोगों की धारणा है कि जन्मना जातिवाद का खंडन भगवान बुद्ध ने भी किया है, इसीलिए जन्मवादी ब्राह्मण बौद्ध धर्म के विरोधी हो गये। अतएव, जातिवाद के प्रसंग में भगवान बुद्ध का भी जिक्र आवश्यक है।
एक बार बुद्ध के किसी शिष्य ने उनसे पूछा कि ''भगवन ! ब्राह्मण लोग कहते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा होने के कारण श्रेष्ठ और पूजनीय हैं, शूद्र ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न होने के कारण हीन और दास मात्रा है। शूद्र धर्माचार्य नहीं हो सकता।'' इस पर भगवान ने कहाᄉ ''ब्राह्मण कैसे कहते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं? ब्राह्मणों की स्त्रिायां ऋतुमती होती हैं, गर्भवती होती हैं, प्रसूता होती हैं, प्रजनन करती हैं, बच्चे को स्तनपान करा कर पालती पोसती और उसका मल मूत्रा उठा कर उसे स्वच्छ रखती हैं। जिस प्रकार सब बच्चों का जन्म होता है उसी तरह ब्राह्मण भी उत्पन्न होता देखा जाता है। तब ब्राह्मण कैसे कहते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं ?''
इस तर्क द्वारा भगवान्‌ बुद्ध ने ब्रह्मा के मुंह से पैदा होने वाले मिथ्या अहंकार का साफ खंडन कर दिया। फिर कहाᄉ ''ब्राह्मण शब्द का अर्थ यदि ब्रह्मसंस्थ, ब्रह्मभूत या ब्रह्मबिहारी है, तो फिर ब्राह्मण उसे ही कहा जा सकता है जिसमें ब्रह्म के समान गुण हों। क्या ब्रह्म में राग द्वेष है? क्या ब्रह्म में अहंकार है? क्या ब्रह्म में ममता है? क्या ब्रह्म भोग परायण है? क्या ब्रह्म में छूत पाक है? क्या ब्रह्म प्राणघाती हिंसक है? क्या ब्रह्म चोर है? क्या ब्रह्म व्यभिचारी है? क्या ब्रह्म झूठा है, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, क्रोधी, पाखंडी, धूर्त, ठग और मिथ्या धारणा वाला है? ब्रह्म में यदि ऐसा कोई विकार नहीं है, तब वह व्यक्ति जो इन सभी विकारों से ग्रसित है, कैसे कह सकता है कि वह ब्रह्म के मुख से उत्पन्न, ब्रह्मसंस्थ, ब्रह्मभूत, ब्रह्मबिहारी, ब्रह्मविदू, ब्रह्मनिमित या ब्रह्म दायाद है?''
अर्थात्‌ जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है, उन जड़ मुखों के पांच लक्षण होते हैं, एक कि हर बात में वेद को प्रमाण मानना, दूसरे कार्य को देख कर कर्ता या कारण का अनुमान करना, तीसरे नहाने को धर्म समझना, चौथे जातिवाद के अहंकार में डूबे रहना और पांचवे पापों के नाश के लिए देह को संताप या कष्ट देना।
जातिवाद विनाश से देश सुखी और समुन्नत
इस तरह जातिवाद की महिमा मिट जाने से जब देश की दबी पिछड़ी जातियों को सिर उठाने का मौका मिला, तो उनमें बड़े बड़े ज्ञानी, योगी, सिद्ध, महात्मा और विद्वान्‌ उत्पन्न होकर समाज में सम्मानित और पूजनीय हुए। बौद्ध त्रिापिटक शास्त्रा में विनय पिटक के प्रणेता आचार्य ÷उपालि' हुए, जो नाई जाति में जन्मे थे। बौद्धाचायोर्ं, स्थविरों, महास्थविरों में अधिकांश छोटी जातियों के लोग दिखायी देने लगे। सुप्रसिद्ध चौरासी सिद्धों में तो सिद्ध मीनपा ÷मल्लाह', सिद्ध कुल्हड़पा ÷कुम्हार' और सिद्ध सरहपाद ÷लोहार' थे। सिद्ध मीनपा ही मत्स्येन्द्रनाथ हैं, जिनके शिष्य गुरु गोरखनाथ हैं, जो प्रसिद्ध नाथ पंथ के आदिगुरु माने जाते हैं।
भगवान बुद्ध द्वारा की धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप सात सौ वषोर्ं तक भारत में जातिवाद दब कर मानवतावाद का बोलबाला रहा। इतिहासवेत्ता जानते हैं कि ये ही सात सौ वर्ष भारतवर्ष का स्वर्णयुग है। इसी काल में भारत में अशोक और चंद्रगुप्त जैसे सम्राट हुए, जिनकी यूरोप और एशिया के महान्‌ सम्राटों से मैत्राी रही। यही वह काल है जब भारत में साहित्य और दर्शन एवं शिल्पकला, चित्राकला, स्थापत्यकला इत्यादि कलाओं की श्लाघनीय उन्नति हुई। किन्तु देश के अभ्युदय को जातिवाद रूपी अजगर निगल गया। अंतिम मौर्य सम्राट महाराज वृहद्रथ को मार कर उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्रा ने राज सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया और अपना शुंगवंशीय ब्राह्मण राज्य चलाया। इस ब्राह्मण राज्य में बौद्धों पर अमानुषी अत्याचार होने लगा। बौद्ध विहारों, बौद्ध विद्यालयों और बौद्ध मूर्तियों को नष्ट किया जाने लगा और बौद्ध भिक्षुओं, स्थविरों और महास्थविरों को इस तरह सताया और त्राास दिया जाने लगा कि बेचारे देश छोड़ कर विदेशों को भाग गये और देश में जन्मवादी ब्राह्मण राज्य का बड़े जोर शोर से आतंक छा गया।
मुसलमानों, ईसाइयों और सिक्खों में भी जाति भेद
शासन सत्ता हाथ में आ जाने से ब्राह्मणवाद का प्रचार तो हो गया परंतु देश स्वाधीन न रह सका। मुसलमानों के हमले शुरू हो गये। कुछ काल तक हमलावर हिन्द का सोना, रत्न, जवाहर और सुंदरी ललनाओं को ही लूट कर ले जाते रहे। बाद में जब उन्हें यहां की भीतरी कमजोरी जातिवादी छिन्न भिन्नता का पता चला, तो उन्हें देश पर हुकूमत करने का भी हौसला हुआ। फलतः यहां मुसलमानी सलतनत कायम हो गयी।
जातिवादी घमंड के नशे में चूर राजपूत तो हमलावरों को जीत न सके। कुछ ÷केसरिया बाना और जौहरव्रत' करके जातिवादी यज्ञकुंड में सपत्नीक आहूत हो गये और बाकी सब अधीनता स्वीकार करने को विवश हो गये। अगर किसी ने हमलावरों का सफल मुकाबला किया, तो जातिविहीन होकर सिक्ख गुरुओं या शूद्र कुलोत्पन्न छत्रापति शिवाजीराव भोसले ने। मुगल सम्राट अकबर ने जातिवादी कलह को मिटाने के लिए ईश्वरीय धर्म (दीनेइलाही) को चलाना चाहा, लेकिन न चल सका। अंत में साम्प्रदायिकता और जातिवाद की ऐसी विजय हुई कि मुसलमानों में भी शेख, सैयद, मुगल, पठान नामक चार वर्ण एवं धुना, जुलाहे, हज्जाम, कुंजड़े कस्साब, कसगर, मोमिन, मीरासी, मनिहार, रंगरेज, दर्जी, गद्दी, डफाली, नक्काल इत्यादि नाना जातियां बन गयीं। उधर सिक्खों में भी जाट, अहलुवालिया, खत्राी, खाती, मजहबी आदि जातियां बनीं और ईसाइयों में भी अछूत जातीय, उच्च जातीय ईसाई एवं यूरोपियन और यूरोशियन ईसाइयों में भी जाति भेद की दुर्गंध निकलती देखी जाती है।