सच क्या है ?




"धर्म या मजहब का असली रूप क्या है ? मनुष्य जाती के
शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उस से उत्पन्न मिथ्या
विश्वाशों का समूह ही धर्म है , यदि उस में और भी कुछ है
तो वह है पुरोहितों, सत्ता-धारियों और शोषक वर्गों के
धोखेफरेब, जिस से वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से
बाहर नहीं जाने देना चाहते" राहुल सांकृत्यायन



















मुद्राराक्षस (प्रत्येक रविवार रास्ट्रीय सहारा में)

यह देश की कैसी महानता है?

हमारे प्रधानमंत्री एक बड़े अर्थशास्त्री के रूप में विख्यात है। शायद यही वजह है कि हमारी सरकार बहुत विश्वास के साथ कहती है कि भारत खूब तरक्की कर रहा है। जरूर तरक्की कर रहा होगा या कर चुका होगा तभी तो हम लाखों टन गेहूं बहुत आश्वस्ति के साथ सड़ा देते है और कृषि मंत्री इत्मीनान के साथ इस मुद्दे पर सिर्फ हां-हूं करते है। वे बोलने की कोशिश करते है, बोलते नही। इस कोशिश पर ही देश कुर्बान होता रहता है। निश्चय ही देश आर्थिक क्षेत्र में महान होकर विश्वशक्ति बनने के कगार पर होगा वरना एक छोटी सी शीशी में सरसों का तेल खरीदने वाला आदमी बिना तेल के ही काम चलाने का करतब कैसे कर लेता? देश जरूर महाशक्ति बन रहा होगा क्योंकि मानव विकास सूची या यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट के अनुसार 182 देशों की फेहरिस्त में पिछले बरस के अन्त में भारत की जगह 134 वी है। यह अलग बात है कि इस सूची में श्रीलंका का स्थान एक सौ दो (102) है और क्यूबा का 51वां। यह स्थिति तब है, जब श्रीलंका और क्यूबा दुनिया के सबसे छोटे देश है और खासे संकटग्रस्त रहे है। बहरहाल, भारत सरकारी बयानों में महाशक्ति बनने जा रहा है। यह अलग बात है कि उसकी आधी आबादी भुखमरी झेल रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी सुविधाओं से वंचित बहुत बड़े प्रतिशत में आज भी करीब 47 करोड़ लोगों तक बिजली नही पहुंची है और 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी नही मिल पा रहा है। हमारे यहां छोटी उो के बच्चों में करीब आधे कुपोषण के शिकार बने हुए है। भले ही देश की आधी आबादी को दो जून की रोटी और तन ढकने को कपड़ा मयस्सर न हो पर हमारे अनेक जन प्रतिनिधि तो अरबों में खेलते है। कहा जा रहा है कि हम आर्थिक समृद्धि का शिखर चूमने जा रहे है। कुछ केबल टीवी चैनल इस महाशक्ति बन चुके देश की महानता की तस्वीरें भी दे रहे है, कि लोग अब इस बात पर ज्यादा गौर नही करेंगे कि इसी देश में आम की सड़ी गुठलियां खाकर भी जिन्दगी बिताते है लोग! इसी देश में इस 21 वी सदी के पहले दशक में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी करके अपने लगभग सात लाख परिजनों को बेसहारा कर दिया। हमारे विदेशी मेहमानों को क्या यह तस्वीर दिखाई जाएगी? क्या उन तक यह तस्वीर भी पहुंचने दी जायेगी कि आज मुल्क की करीब तीन-चौथाई आबादी को सिर्फ 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करनी पड़ती है और करीब चौथाई आबादी को रोजाना साढ़े ग्यारह रुपये भी उपलब्ध नही होते है? देश की हालत को देखते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया की याद आती है। उनकी वह बहस संसद के इतिहास में आज खास तौर से याद आती है जिसमें उन्होंने साबित किया था कि गरीब आदमी इस देश में चार आने रोज में गुजारा करता है। साठके पूर्वार्ध के चार आने आज और कम हो चुके है। उस हिसाब से आज आदमी पौने तीन आने में जीवन जीने के लिए मजबूर है। वह जिए या मरे, हमारे तमाम जनप्रतिनिधि तो अरबपति है। ये वे लोग है, जिन पर भरोसा करके अवाम ने उन्हें इसलिए संसद भेजा था कि वे कम से कम उनकी बुनियादी जरूरतों का इंतजाम करेंगे। लेकिन प्रतिनिधियों का चरित्र ऐसा हो गया है कि उन्हें अपनी ही जरूरतों की चीजों के ढेर लगाने से फुर्सत नही मिल पाती। यह कौन नही जानता है कि जो मुंबई देश का सबसे खुशहाल और जगमग इलाका है, वही डॉ. लोहिया के अनुसार चार आने या आज के बारह रुपये रोज में गुजर करने वाले लोगों की धारावी भी मौजूद है। इसी खुशहाल प्रदेश के विदर्भ क्षेत्र के ग्यारह जिलों के किसान आत्महत्याएं करते रहे हैं। पैकेज दिये जाने के बावजूद उनकी त्रासदी दूर नही हुई और वे अब भी कर रहे है। केंद्रीय कृषि मंत्री भी इस प्रदेश से आते है और यहां के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यह देख कर मन द्रवित हो जाता है कि संसद और विधानसभाओं में बड़ी हसरत से भेजे जा रहे हमारे ज्यादातर जनप्रतिनिधियों के मन-मस्तिष्क से जनता की छवि गायब हो गई है। वे सिर्फ अपनी-अपनी सोचने लगे है और जनता को उनके अपने रहमोकरम पर छोड़ दिया है।





13 june 2010 RA.SAHARA

संस्कृत भाष का भविष्य

संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अशोक कुमार कालिया ने अभी राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में कहा कि संस्कृत अनंत ान का भंडार है। कुछ अरसे से दिल्ली डीएवी कॉलेज ट्रस्ट एक सुरुचिपूर्ण अंग्रेजी पत्रिका प्रकाशित कर रहा है। इसके नए अंक में एक लेख छपा है जिसका विषय है- संस्कृत सिर्फ भाषा नही, संस्कृति भी है। संस्कृत भाषा पर विचार करते समय हम हमेशा अतिरंजनाओं से काम लेते है। सामान्य जन की भाषा में कहें तो हम संस्कृत को लेकर इतने गद्गद् और आत्ममुग्ध होते है कि अंधविश्वास के दायरे में जा खड़े होते है। जिसे हम अनंत ान का भंडार कहते है, उसमें सवा हजार बरस में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय दर्शन चिंतन का कोई काम नही हुआ। आदि शंकराचार्य संस्कृत भाषा के अंतिम बड़े विचारक-दार्शनिक थे गो कि उन्हें संस्कृत की दुनिया में ही प्रच्छन्न बौद्ध होने की निन्दा झेलनी पड़ी। पिछली तीन-चार सदियों में संस्कृत में कविता और नाटक के नाम पर कुछ भी उल्लेखनीय नही लिखा गया। हिंदी के बीसवी सदी के आलोचकों और साहित्यकारों ने मुगल शासकों की जम कर निन्दा की कि उनके कारण संस्कृत साहित्य और संस्कृति का ध्वंस हुआ पर वे भूल जाते है कि मुगल वंश से ही रहीम खानखाना का संबंध था और उसी वंश के दाराशिकोह उपनिषदों का फारसी अनुवाद करते थे। हिंदू अक्सर औरंगजेब के नाम से भड़कते हैं लेकिन भूल जाते है कि संस्कृत के सबसे बड़े काव्यशास्त्री पंडितराज जगन्नाथ को आश्रय औरंगजेब ने ही दिया था और उन्होंने मुगलवंश की शहजादी से विवाह किया था। संस्कृत को लेकर भावविभोर हो हम संस्कृत को अनंत ान की खान ोषित करते है लेकिन भूल जाते है कि दुनिया की ान राशि कहां पहुंच गई है। संस्कृत ने ानराशि में हिस्सेदारी अपनी Ÿोष्ठताग्रंथि के चलते समाप्त कर ली। इसी देश के सत्येन बोस ने जिस बोजोन परमाणु की अवधारणा दी, दुनिया की सबसे बड़ी मशीन लार्ज हैड्रान कोलाइडर उसी का परीक्षण कर रही है लेकिन बोजोन संस्कृत ानराशि की उपलब्धि नही है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में दुनिया की भौतिकी की बुनियाद बदल देने की संभावना वाले सुपर स्ट्रिंग सिद्धान्त का संस्कृत की दुनिया से कोई रिश्ता नही है। बेहतरीन संस्कृत कविता, नाटक और काव्यशास्त्र की परंपरा हमने अपने इसी अहंकार में समाप्त कर दी कि संस्कृत में ब्र¨ांड का ान भरा हुआ है। इस देश में अपने इसी अहंकार के कारण हमने संस्कृत भाषा और कृतित्व की जड़ें खोद कर रख दी है। भारत आए बहुत से अंग्रेजों द्वारा संस्कृत नाटकों, काव्यों और काव्यशास्त्रों को खोज लिए जाने के बावजूद अपार संस्कृत साहित्य आज भी खोया पड़ा है। हम अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों को आज भी उनके कुछ उद्धरणों से ही जानते है। जिस बड़े व्याकरण का जिक्र खुद यास्काचार्य ने किया था, उसके ग्रंथ कहां है? कौत्स ने तो वेदों पर काम किया था। उसका काम कहां है? संस्कृत की सारी पुस्तकें हिंदी में उपलब्ध क्यों नही है? खुद भरत नाट्यशास्त्र की तीनों प्रतियों में पाठान्तर सहित संपूर्ण हिन्दी अविकल भाष्य अंग्रेजी में है, हिंदी में उपलब्ध क्यों नही है? धर्मसूत्र और गृय सूत्रों के लगभग सवा सौ महत्वपूर्ण ग्रंथ है। मनी और यावलक्य को छोड़ शेष ग्रंथ हिंदी में तो उपलब्ध नही ही है, अधिकांश के मूल भी उपलब्ध नही है और हम संस्कृत को लेकर विभोर रहने के आदी हो गए है। संस्कृत भाषा को लेकर हमारे दुरभिमान को सबसे बड़ा बल मिला पश्चिमी भाषा वैानिकों से जिन्होंने यह खोज कर ली कि संस्कृत अधिकांश पश्चिमी भाषाओं की मूल है। हम भूल जाते है कि संस्कृत स्वयं भारतीय भाषाओं की जननी कभी नही रही। संस्कृत का विकास इस देश में उसी तरह हुआ था जैसे चार सदी पहले उर्दू का जन्म हुआ था। हमें झारखंड की लेखिका पूनम कुमारी गुप्ता का वह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए जिसे झारखंड हिंदी विद्यापीठकी पत्रिका ने छापा है। इसमें पूनम ने तकरें के साथ सिद्ध किया है कि संस्कृत इसी देश की प्राकृत जैसी भाषाओं का शोधित, परिष्कृत या संस्कारित परिणाम है। यह एक अलग बहस का विषय है लेकिन इतनी बात हमें समझनी होगी कि इसके देवभाषा होने के मुगालते से हमें बचना होगा। देवभाषा बना कर ही हमने इसे मानवीय ानराशि से दूर कर दिया और आज यह सिर्फ पूजापाठऔर कर्मकांड की भाषा बची है। खुद हिंदी रचनाकारों-लेखकों के बीच भी कठिनाई से संस्कृत भाषा के जानने वाले होंगे। पिछली जनगणना के आंकड़ों के अनुसार इस एक सौ पन्द्रह करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ बावन हजार संस्कृत-भाषी थे। हमने इसे देवताओं की भाषा बनाकर ही चौपट किया। इसकी साहित्य रचना और वैचारिक लेखन, दोनों को समाप्त करके अनेक अथरें में हमने इसे एक मरी हुई भाषा में तब्दील कर दिया। संस्कृत के लिए भक्ति नही तार्किक दृष्टि चाहिए, तभी वह पुनर्जीवित होगी।




मंडल से आगे एक कदम और मुद्रा राक्षस

18 DEC 2010
मंडल से आगे एक और कदम


पिछले हफ्ते भारत की सर्वोच्च अदालत ने भारत के सामाजिक इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का रास्ता खोलते हुए वंचित समाज के आरक्षण के प्रावधान को भारी गतिशीलता दे दी। अब तक देश के लगभग नब्बे फीसद वंचित समाज को, दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर, पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण नही मिल सकता था। आरक्षण की अधिकतम सीमा यही थी। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि राज्य सरकारें अपने यहां पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण दे सकती हैं। यह फैसला सर्वोच्च अदालत ने तमिलनाडु, उड़ीसा और कर्नाटक के लिए पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण के विरुद्ध दायर याचिकाओं पर दिया। कुछ समय पहले आरक्षण की सामाजिक, ऐतिहासिक और कानूनी व्याख्या करते हुए डॉ. रामसमुझ की महत्वपूर्ण किताब ‘रिजर्वेशन पॉलिसी’ की भूमिका में न्यायमूर्ति केजी बालाकृष्णन ने लिखा था कि समाज में कुछ लोगों की क्षमताओं को नपुंसक और निष्क्रिय बनाया जाता रहा है जबकि कुछ लोगों को खासा महत्व दिया जाता रहा है। डॉ. रामसमुझ ने अपनी इसी किताब में मंडल कमीशन पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1992 में दिये गये फैसले से जस्टिस सावंत की एक समाज ऐतिहासिक टिप्पणी उद्धृत की है जिस पर देश चलाने वाले लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। इन्द्रा सहानी बनाम भारत सरकार के इस मुकदमे में फैसला देते हुए न्यायमूर्ति सावंत ने कहा था, ‘इस यथास्थिति के चलते देश के लिए भयावह, चौंकाने वाले और विनाशकारी परिणाम हुए है। सभी क्षेत्रों में देश के पिछड़ेपन का मुख्य कारण यह है कि पचहत्तर फीसद आबादी को देश चलाने के काम से बाहर रखा गया.. जहां आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को वास्तविक सत्ता में हिस्सेदारी से वंचित रखा जाता है वहां वास्तविक जनतंत्र संभव नही होता’ आरक्षण की यह परिभाषा बहुत अहमियत रखती है। डॉ. राम समुझ ने आरक्षण की जरूरत की पड़ताल करते हुए एक दिलचस्प कहावत उद्धृत की है- जहां दांत हैं, वहां चना नही है और जहां चना है वहां दांत नही हैं। यानी देश की आबादी में से सक्षम लोगों का जो बहुत बड़ा हिस्सा है, उसके पास काम करने का कोई अवसर नही है और अवसर उन्हें मिलते रहे है जो सक्षम नही रहे है। न्यायमूर्ति बालाकृष्णन ने भी अपनी भूमिका में इसी दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई को रेखांकित किया है। आरक्षण के सवाल पर बहुत बलपूर्वक यह बात दोहराई जाती है कि आरक्षण द्वारा कम क्षमता और कम योग्यता वालों को अवसर दिया जाता है। इन्द्रा सहानी बनाम भारत सरकार के इसी मंडल कमीशन वाले मुकदमे में न्यायमूर्ति सावंत ने इस सवाल का स्पष्टता से जवाब दिया है। न्यायमूर्ति सावंत ने अपने फैसले में आरक्षण में कम योग्यता वाले को जगह दिये जाने के सवाल का जवाब देते हुए कहा था, ‘यह धारणा तथ्यात्मक रूप से सही नही है कि आरक्षण द्वारा कम योग्यता वाले प्रतियोगी को दाखिला मिल जाता है’ हमने कई बार इस बात के उदाहरण दिये है कि दलित अथवा ओबीसी की प्रतिभाओं ने अभूतपूर्व योग्यताओं का परिचय दिया है। दरअसल जिन्हें छोटी जाति का कहा जाता है, उन्हें सामान्यत: योग्यता विकसित करने का अवसर ही नही दिया जाता। अंग्रेजों ने भारत में अपने जो स्कूल खोले थे, उनमें जातीय भेदभाव नही था। शूद्र जातीय बच्चे भी सबके साथ पढ़ते थे। शूद्र जातियों को योग्यता से वंचित रखने वाली इस मानसिकता को हमें भूलना नही चाहिए। इसी शूद्र जाति में भारत में कई शिखर के गायक, चित्रकार और मूर्तिकार पैदा होते है। इसी शूद्र जाति में कबीर और रैदास होते है। ध्यान रहे कि गौतम बुद्ध से बहस करने के लिए जब ब्रा¨ण श्रेष्ठअंबष्ठमाणवक आए थे तो उन्होंने बुद्ध को भी शूद्र ही कहा था। जस्टिस सावन्त ने इसी क्रम में एक और बात खासे व्यंग्यात्मक शब्दों में कही, ‘व्यावहारिक तौर से सदियों से ऊंची जातियों को तो शत-प्रतिशत आरक्षण मिला रहा है और अन्य लोगों को इससे बाहर रखा गया’ दरअसल यह जो अलिखित आरक्षण बना रहा है, यही भारत के बहुसंख्यक समाज और इतिहास का ....समाप्त


वामपंथ से मोहभंग

11 DEC 2010


भारतबंद के अभियान में वामपंथी पार्टियों ने भारतीय जनता पार्टी

संगठन के साथ चलना इसलिए पसंद किया कि वामदल भाजपा के साथ होंगे तो भारतबंद सफल होगा। दिलचस्प है कि वामपंथ की इस नेकनीयत के बावजूद भारतबंद का पांच जुलाई 2010 का यह प्रय} बहुत हद तक फीका रहा। लेकिन इतिहास में एक बार फिर यह बात दर्ज हो गई कि गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर भारतीय जनता पार्टी की ताकत बढ़ाने में वामपंथ ने एक बार फिर बड़ी भूमिका निभाई। लोगों का कहना है कि वामपंथ को अपनी पार्टी के कार्यालयों में मार्क्‍स की बजाए डॉ. राम मनोहर लोहिया की तस्वीर टांगनी चाहिए। लोहिया ने पिछली सदी के साठके दशक में जो गैर-कांग्रेसवाद का अभियान शुरू किया था, वह उस वक्त के जनसंघ के साथ मिलकर ही चलाया गया था और कम्युनिस्ट उस अभियान के बाद बनी संयुक्त विधायक दल सरकार में उत्साह से शामिल हुए थे। इसके बाद सत्तर के दशक में एमर्जेन्सी समाप्त होने पर केन्द्र में जो जनता पार्टी सरकार जयप्रकाश नारायण ने गठित कराई, उसको भी वामपंथी समर्थन था और जनसंघ उसका बड़ा और निर्णयकारी घटक थी। यही हाल केन्द्र में जनता दल सरकार के गठन के समय भी था। यानी गैर-कांग्रेसवाद के मामले में वामपंथ ने भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े होने में कभी कोई संकोच नही किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी की ताकत लगातार बढ़ती गई और वामपंथ जर्जर होता चला गया। पांच जुलाई को कुछ पार्टियों द्वारा जो भारतबंद किया गया, उस पर भी अब हमें ध्यान देना चाहिए। यह बंद भी भारतीय जनता पार्टी और वामदलों ने साथ मिलकर किया। गैर-कांग्रेसवाद के उत्साह में कम्युनिस्ट एक बार फिर संयुक्त विधायक दल या जनता पार्टी का इतिहास दुहरा रहे थे। जिस भारतीय जनता पार्टी के पास कुछ दिन पहले तक देश की राजनीति में खड़े रहने की बालिश्त भर जमीन नही थी, उसमें वामदलों के गैर-कांग्रेसवाद ने नई जान फूंक दी। भारतबंद के नाम पर क्या यह जरूरी था? कुछ अरसा पहले इन्ही वामपंथियों ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को देश की प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा की थी। यह अलग बात है कि वामपंथी दल जल्दी ही अपनी यह हलफ भूल गए। लेकिन हमें देखना चाहिए कि महंगाई के नाम पर केन्द्र सरकार का विरोध करने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी भारतीय जनता पार्टी व वामपंथियों के साथ सड़कों पर नही उतरी। उसने अगले दिन अलग से प्रदर्शन किया। क्या वामपंथ भी यही नही कर सकता था? इस मुद्दे पर एक और तथ्य नजरअंदाज नही किया जा सकता। स्थानीय निकाय चुनावों में पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के वाममोर्चा की करारी हार हुई थी। इस पराजय के पीछे पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों का मोहभंग भी एक कारण रहा है। पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की बहुत बड़ी जरूरत दंगों से बचाव की भी थी। इसे वाममोर्चा ने बखूबी निभाया। पश्चिम बंगाल वाममोर्चा सरकार के दौरान पूरी तरह दंगामुक्त रहा। लेकिन देश के अल्पसंख्यकों को विकास में उनकी संख्या के अनुपात में भागीदारी मिले, यह भी उम्मीद की जाती रही है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने यह दुर्भाग्यपूर्ण

तथ्य सामने रखा कि नौकरियों या काम धंधों में रोजगार के मामले में अल्पसंख्यक पश्चिम बंगाल में भी अच्छी हालत में नही है। नौकरियों के मामले में वे दुर्दशाग्रस्त ही बने हुए है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा

सरकार के किसी प्रतिनिधि ने कहा था कि वे पहले हिंदू है, बाद में वामपंथी। कल्पना कीजिए अगर लेनिन के समय में सोवियत सरकार के किसी मंत्री ने कहा होता कि वे पहले क्रिश्चियन है बाद में कम्युनिस्ट तो क्या नतीजा हुआ होता? वाममोर्चा का जो मंत्री अपने को पहले हिंदू घोषित करता है, वह बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि विवाद में किसके साथ होगा, कल्पना की जा सकती है। जब वाम मोर्चा का एक वामपंथी यह घोषणा कर सकता है तो उसकी सरकार के कितने और लोग इस मानसिकता के नहीं होंगे, कौन दावा कर सकता है? इसी मानसिकता के चलते पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों को न उनके अनुपात में नौकरियां मिली और न ही रोजगार। इस स्थिति का नतीजा पिछले स्थानीय निकाय चुनावों में सामने आया। वास्तविकता यह है कि पश्चिम बंगाल के वाममोर्चा से उनका मोहभंग हो गया था। समाप्त


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