सच क्या है ?




"धर्म या मजहब का असली रूप क्या है ? मनुष्य जाती के
शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उस से उत्पन्न मिथ्या
विश्वाशों का समूह ही धर्म है , यदि उस में और भी कुछ है
तो वह है पुरोहितों, सत्ता-धारियों और शोषक वर्गों के
धोखेफरेब, जिस से वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से
बाहर नहीं जाने देना चाहते" राहुल सांकृत्यायन



















Wednesday, December 29, 2010

महंगी दुर्घटना, सस्ती जान

महंगी दुर्घटना, सस्ती जान 13 june 2010 RA.SAHARA

अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के दस्तावेजों के सामने आने से इस बात का खुलसा हो रहा है कि वारेन एंडरसन को छुड़ाने में अमेरिकी ताकत का इस्तेमाल किया गया। ऐसी ताकत जो भारत के प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को यह आदेश दे सकती है कि वह उसके किसी कैदी को रिहा कर दे और उसे पूरे सम्मान के साथ अमेरिका भेज दे। अगर वाकई यह सब अमेरिकी इशारों पर हुआ था तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सूरमा नेताओं को शर्म से डूब मरना चाहिए। हम भी शर्मसार है कि हमने ऐसे नेताओं को देश की सत्ता चलने दी

जान तो जान है। भला जान की क्या कीमत हो सकती है। लेकिन कीमत भी लगती है। सौदे भी होते है। हां, सौदेबाजी में कुछ बातों का खास खयाल रखा जाता है। जैसे- जान किसकी गई, गुनहगार कौन है, और मामला देसी है या विदेशी? और गुनाह में कोई अमेरिकी शामिल हो तो इंसाफ के मायने ही बदल जाते है। पिछले लगभग 26 सालों से भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगों को इंसाफ दिलाने के नाम पर इन्ही खास बातों का खयाल रखा जा रहा है। गलती अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड से हुई और मुख्य गुनहगार कंपनी के सीईओ वारेन एंडरसन भी अमेरिकी है। क्या यही वजह है कि े 26 सालों से इंसाफ दिलाने के नाम पर मजाक ही हो रहा है? मजाक के कुछ नमूने देखिए। 1984 में जहरीले गैस के रिसाव से भोपाल में 20 हजार लोग मरे और करीब पांच लाख सत्तर हजार बीमार पड़े। लेकिन सरकारी फाइलों में कई साल तक मरने वालों की संख्या तीन हजार बताई गई और बीमारों की संख्या महज एक लाख। इसी आंकड़े को मानकर यूनियन कार्बाइड के साथ एक समझौता हुआ। तय हुआ कि अमेरिकी कंपनी मुआवजे के रूप में 713 करोड़ रुपए देगी और बदले में उस कंपनी के विरुद्ध दर्ज सारे मुकदमे वापस ले लिये जाएंगे। इसमें से 113 करोड़ रुपए जान-माल के नुकसान की भरपाई में खर्च होने थे और बाकी के 600 करोड़ मुआवजे के रूप में बांटे जाने थे। सवाल है कि किसने किया ऐसा समझौता? क्या इसके लिए हादसे से पीड़ित लोगों की राय ली गई? छह लाख लोगों के लिए 600 करोड़ रुपए! यानी हर पीड़ित के हिस्से में दस हजार रुपए का मुआवजा! यह मजाक नही है तो और क्या है। देसी मामलों में तो इससे कई गुना ज्यादा मुआवजा बंटा है। दिल्ली के उपहार सिनेमा हादसे में मरने वालों के परिवारों को 15 से 18 लाख रुपए तक मुआवजा मिला और ायल के परिवार को एक लाख रुपए मिले। लेकिन एक ऐसा हादसा, जिसमें एक बड़े शहर की करीब एक तिहाई आबादी तबाह हो गई, उसके मुआवजे के रूप में चिल्लर। जो कोई भी इस पाप का भागी है, देश की जनता उसे कभी माफ नही करेगी। पीड़ितों के साथ तो मजाक हुआ लेकिन मुख्य आरोपित यानी वारेन एंडरसन को बचाने में कोई कसर नही छोड़ी गई। दरुटना के चार दिन बाद उसे पहले गिरफ्तार किया गया और फिर चार ही ंटे के बाद मध्य प्रदेश सरकार के विशेष विमान द्वारा भोपाल से दिल्ली पहुंचाया गया। विशेष विमान में यात्रा की इजाजत राज्य के मुख्यमंत्री खास लोगों को ही देते है। इस मामले में खास आदमी था 20,000 लोगों का हत्यारा। हत्यारे को बचाने का फैसला उस समय के मुख्यमंत्री का था या फिर उस समय के प्रधानमंत्री के इशारे पर यह सब हुआ- देश को यह जानने का हक है। देश को यह भी जानने का हक है कि इस निौने सच को 26 साल से दबाकर क्यों रख गया? क्या हत्यारे एंडरसन को बचानेवालों को यह एहसास था कि खुद एंडरसन के देश अमेरिका में जान की सुरक्षा की कितनी अहमियत है। एक मिसाल देखिए- अमेरिका के गल्फ ऑफ मैक्सिको में ब्रिटिश पेट्रोलियम के तेल के कुएं से 24 अप्रैल, 2010 से कच्चे तेल का रिसाव हो रहा है। इस दरुटना में 11 लोगों की जान गई है और 597 पक्षियों को मरा हुआ पाया गया है। इस रिसाव को रोकने में ब्रिटिश पेट्रोलियम अब तक 7,500 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। ऊपर से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के आरोप में कंपनी को कितना मुआवजा देना होगा, यह तय होना बाकी है। अनुमान है कि ब्रिटिश पेट्रोलियम को इस दरुटना की वजह से 80,000 करोड़ रुपए तक का चूना लग सकता है। ग्यारह अमेरिकी जानों की कीमत 80,000 करोड़ रुपए लेकिन 20,000 भारतीयों की हत्या के बदले महज 713 करोड़ रुपए। इस तरह के भयानक मजाक को अंजाम देने वाले 26 साल तक कैसे चैन से सो पाए, यह ताज्जुब की बात है। ताज्जुब की बात यह भी है कि 1984 के बाद देश में आठबार प्रधानमंत्री की कुर्सी बदली, मध्य प्रदेश में आठनए मुख्यमंत्री बने है। इतने बड़े नेताओं को कभी भी यह नही लगा कि भोपाल में जो ोर अन्याय हुआ है, इसका प्रायश्चित होना चाहिए। भूल सुधार तो दूर, कभी किसी को यह भी नही लगा कि भोपाल की त्रासदी के बाद कम से कम कानून में ऐसे बदलाव हों कि यूनियन कार्बाइड जैसे हादसे को अंजाम देने के बाद कोई इस तरह चिल्लर बांटकर ही छुटकारा न पा ले। उल्टे ऐसे कानून बन रहे है जिसमें यह तय होगा कि परमाणु दरुटना से होने वाले नुकसान की भरपाई करने में निजी कंपनी की लाइबिलिटी तय कर दी जाए। मतलब यह कि नुकसान कितना भी बड़ा क्यों न हो, कंपनी को मामूली हर्जाना ही देना होगा। हाय रे नेता और हाय रे हमारा लोकतंत्र!ए/ैय़एैय़ भोपाल गैस त्रासदी में अब जो तथ्य सामने आ रहे है, उनसे साफ पता चलता है कि यूनियन कार्बाइड चलानेवालों को यह अच्छी तरह से पता था कि इस तरह की दरुटना हो सकती है। फिर भी बचाव के कोई तरीके नही खोजे गए। वही अमेरिकी मंड। गरीब देश की गरीब जनता की सुरक्षा में अमेरिकी कंपनी क्यों खर्च करे? नुकसान हो भी गया तो अमेरिकी दादागीरी से किसी अमेरिकी का बाल बांका भी नही होगा। और वही हुआ भी। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के दस्तावेजों के सामने आने से इस बात का खुलासा हो रहा है कि वारेन एंडरसन को छुड़ाने में अमेरिकी ताकत का इस्तेमाल किया गया। ऐसी ताकत जो भारत के प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को यह आदेश दे सकती है कि वह उसके किसी कैदी को रिहा कर दे और उसे पूरे सम्मान के साथ वापस अमेरिका भेज दे। अगर वाकई यह सब अमेरिकी इशारों पर हुआ था तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सूरमा नेताओं को शर्म से डूब मरना चाहिए। हम भी शर्मशार है कि हमने ऐसे नेताओं को देश की सत्ता चलाने दी। भोपाल के सबक को हमें भूलना नही चाहिए। 26 साल पहले के अन्याय को तो बदला नही जा सकता है लेकिन आगे इस तरह के अन्याय नही हों, इसके लिए हमें बुजदिल और कायर नेताओं को उनके पापों का प्रायश्चित करने पर मजबूर करना ही होगा। (लेखक सहारा इंडिया मीडिया के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर है)

सड़ता अनाज सड़ता लोकतंत्र

सड़ता अनाज सड़ता लोकतंत्र

विभांशु दयाल 22 dec 2010 रास्ट्रीय सहारा

इस देश में लाखों लोग भूखे पेट भटकते रहते है और इसी देश में हजारों टन अनाज खुले गोदामों में सड़ जाता है, बरबाद हो जाता है। इस बर्बाद होते अनाज में से एक लाचार अधेड़ औरत थोड़ा- सा अनाज अपनी भूखी झोली में भरने की मजबूरिया कोशिश करती है तो रखवाला जवान चौकीदार उसे घसीट कर रेलवे ट्रैक पर डाल देता है, उसकी पिटाई करता है, उसे कमरे में बंद कर देता है और मीडिया से प्रसारित इस दृश्य को पूरा देश मजे से देखता है। देश की सर्वोच्च न्याय संस्था सर्वोच्च न्यायालय विसंगति का संज्ञान लेकर आदेश देता है कि अनाज को सड़ाने की बजाए सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी मुफ्त आपूर्ति सुनिश्चित करे और देश की सरकार दो टूक जवाब थमा देती है कि गरीबों को मुफ्त में अनाज बांटने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करना संभव नहीं है। ध्यान दीजिए कि हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के दो सर्वोच्च स्तंभ न्यायपालिका की शीर्ष संस्था सर्वोच्च न्यायालय और कार्यपालिका की शीर्ष संस्था केंद्र सरकार सामान्य लोगों की दैनिक समस्याओं का समाधान किसके भरोसे है। सड़ते अनाज और गरीबों में इसके वितरण का संभव न हो पाना, सीधे-सीधे यह बताता है कि एक ओर बेशकीमती अनाज सड़ता रहेगा और दूसरी ओर गरीबों के पेट भूखे रहते रहेंगे। इस डरावनी विरोधाभासी स्थिति का हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के पास निर्णायक और अंतिम तौर पर कोई हल नहीं है। यानी हमारी वर्तमान शासकीय प्रणाली में ऐसा कोई प्रावधान करना संभव ही नहीं है कि अनाज को सड़ने न दिया जाए और सड़ने से पहले उसे गरीबों के पेट तक पहुंचा दिया जाए। इस व्यवस्था में यह अनिराकरणीय विसंगति केवल सड़ते अनाज और गरीबों के भूखे पेट के मध्य ही नहीं है, बल्कि लोगों के सामान्य जीवन के हर क्षेत्र में पैठी हुई है। देश के दस लोगों के पास जितनी संपत्ति बताई जाती है, उतनी निचले तबके के दस करोड़ लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है। करोड़ों लोगों को दिन शुरू करने के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी, वहीं लाखों लोग ऐसे है जो तय नहीं कर पाते कि आज उनका पिज्जा खाने का मन है या बर्गर खाने का, उन्हें मटन की डिश चाहिए थी या चिकिन की। करोड़ों जिन कैलोरियों के लिए तरसते है उतनी कैलोरियां कुछ लाख लोग मुंह में भर-भर कर सड़कों पर थूक देते है या कूड़ेदान में फेंक देते है। जिन्हें सबसे ज्यादा इलाज और दवा की जरूरत है, उनके पास न इलाज है न दवा, लेकिन जो पहले से ही स्वस्थ्य है उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए हर गुरु और हर विशेषज्ञ मौजूद है। जिनके पास मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं है, जो उचित शिक्षा और वातावरण पाकर चमत्कारिक ढंग से विकास कर सकते है और समाज की बेहतरी में बेहतरीन योगदान दे सकते है उनके पास कोई अवसर नहीं है। दूसरी ओर लाखों लोग ऐसे है जो भले ही दिमाग से गर्दभ और दिल से शूकर हो मगर अपनी कृष्ण संपत्ति के बल पर किसी भी अवसर को खरीद सकते है और किसी भी पद पर शान से प्रतिष्ठित हो सकते है। जिन्हें सबसे ज्यादा न्याय की जरूरत है, न्याय पाने के लिए उनकी जिंदगियां घिस जाती है मगर उन्हें न्याय नहीं मिलता। दूसरी ओर न्याय तंत्र का सहारा लेकर जिन्हें अन्याय करना होता है, उनकी सेवा के लिए देश की हर अदालत तैयार है। आखिर हमारे वर्तमान लोकतांत्रिक जीवन का कौन-सा ऐसा पहलू है जिसमें सड़ते अनाज और भूखे पेटों की विसंगति मौजूद नहीं है? ये वे विसंगतियां है जिनका समाधान न उच्चतम न्यायालय के पास है और न किसी भी केंद्र या राज्य सरकार के पास। अब जब इनमें से किसी का भी कोई हल नहीं मौजूद नहीं है तो फिर इस पर हायतौबा मचाने का अर्थ ही क्या है कि इधर लोग भूख से तड़प रहे है और उधर हजारों टन अनाज सड़ रहा है। दूसरे शब्दों में किसी भी ऐसे अपराध अभद्रता, अन्याय, अतिचार या असंगति के बारे में आलतू-फालतू आयं-बायं कहने या सुनाने का लाभ क्या है जब कहीं कुछ होना ही नहीं है। जब कुछ बदलना ही नहीं है। कम से कम उन तरीकों से तो बदलने की कल्पना ही बेमानी है जो तरीके हमारी वर्तमान व्यवस्था से ही प्रसूत और पोषित है। अगर इनसे कुछ बदल सकता है तो बदलता हुआ दिखाई देता और परेशान-हताश होकर देश का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवाद जैसे प्रतिरोधक आंदोलन की शरण में नहीं चला जाता। अगर थोड़ी सी भी गहराई से नजर डाल लें तो साफ समझ में आता है कि ये सारी विकृतियां और विसंगतियां भारत जैसी वर्तमान लोकतांत्रिक-चुनावी व्यवस्था की विचलनकारी स्थितियां नहीं बल्कि स्वाभाविक और प्राकृतिक स्थितियां है। व्यवस्था के विचलनों का हल खोजा जा सकता है और उनका उपचार किया जा सकता है, लेकिन स्वाभाविक विकृतियों का नहीं। सड़ते अनाज और भूखे पेट की विसंगति एक स्वाभाविक और अपरिहार्य विसंगति है। जिसका हल न उच्चतम न्यायालय के पास है और न केंद्र सरकार के पास। ठीक उसी तरह जैसे अन्य विकृतियों या विसंगतियों का नहीं है। हल है, लेकिन अपने समाज को चलाने की जो प्रतियोगितात्मक और प्रतिद्वंद्वात्मक पद्धतियां हमने प्रचलन में कर रखी है उनके बीच कोई हल नहीं है। इन पद्धतियों के बीच हम लगातार व्यक्ति की अंधी हवस को हवा दे रहे है जिसके चलते व्यक्ति का संवेदनशील न्यायबोध ही मर जाता है और उसकी सहज मानवीय संवेदनाएं कुंद हो जाती है और ऐसे व्यक्तियों का समाज सहजता से स्वीकार कर लेता है कि लोग भूख से मरते रह सकते है और साथ ही गोदामों में अनाज सड़ते रह सकता है। देखने की जरूरत तो यह है कि गोदामों में अनाज इसलिए सड़ रहा है कि वर्तमान चुनावी व्यवस्था की गोद में बैठा हमारा यह लोकतंत्र ही सड़ रहा है। विभांशु दिव्याल समाज